भक्ति-भावना से होगा चित्त वृत्तियों का निरोध

किशोर कुमार

कोरोनाकाल में शारीरिक और मानसिक रूप से अपने को स्वस्थ्य रखने और अवसाद से बचने के लिए सारे उपाय किए। बात न बनी। मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की। इसलिए कि जीवन में इतनी जटिलताएं हैं कि अशांत मन को किसी बात से सांत्वना नहीं मिल पाती। चाहे आसन हो या प्राणायाम या फिर ध्यान, कोई भी योगाभ्यास फलित नहीं होता। कई बार स्थिति इतनी विकराल होती है कि उसकी परिणति आत्म-हत्या के रूप में सामने आती है।

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विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक कोरोना महामारी के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रति 100,000 लोगों में 16.5 आत्महत्याएं हो रही हैं। इनमें भारत का योगदान सर्वाधिक है। अवसादग्रस्त मरीजों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। भारत के योगियों ने ऐसे लोगों को संकट से निकलने के लिए अनेक उपाय बतलाए। ध्यान साधना पर खूब जोर दिया गया। सजगता के विकास और मन की एकाग्रता के लिए सरल उपाय बतलाए गए। पर अनेक लोगों को इससे बात बनती नहीं दिख रही। आम शिकायत है कि जीवन में समस्याओं का इतना समावेश हो चुका है कि मन स्थिर होता ही नहीं।

पुराणों पर गौर करें तो पता चलता है कि मृत्युलोक में मानव जाति को विकट समस्याओं से बार-बार गुजरना पड़ता रहा है। पर संतों की युक्तियों से मानव जाति का उद्धार होता रहा है। रूद्रयामल तंत्र की रचना ही पार्वती जी की मानसिक बेचैनी की वजह से हो गई। आदियोगी शिव ने मन पर काबू करके अभीष्ट की सिद्धि के लिए इतने उपाय सुझाए कि प्रत्याहार, धारणा और ध्यान से लेकर मोक्ष तक की बात हो गई। संत कबीर कहा करते थे – मैं उस संतन का दास जिसने मन को मार लिया। पर आधुनिक युग में मन को मार लेना आम आदमी के लिए चुनौती भरा कार्य बना हुआ है। अंधकार में डूबा मन अपनी जिद पर अड़ा है। पल भर में दुनिया की सैर करता है।

दिनो-दिन ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हो रहा है कि हम मल्टी साइकिक होते जा रहे हैं। सुबह कुछ तय करो, शाम होते-होते विचार बदल जाता है। योग की महत्ता समझने वाले मानते हैं कि ध्यान को उपलब्ध होने से ही बात बनेगी। पर उनकी एकांतवास की चाहत पूरी नहीं हो पाती। हिमालय में भी नहीं। कही पढ़ा था कि प्रसिद्ध अमरीकी लेखक और प्रेरक सेम्युअल लेन्गहोर्न क्लेमेन्स, जो मार्क ट्वेन के नाम से ख्यात हुए थे, से किसी मित्र ने पूछ लिया – आपका आज का व्याख्यान कैसा रहा? ट्वेन ने पलट कर सवाल कर दिया – कौन-सा व्याख्यान? मित्र ने कहा – आज आपने एक ही व्याख्यान तो दिया है, उसी की बात कर रहा हूं। मार्क ट्वेन ने इसका जो उत्तर दिया, उससे आदमी के अनियंत्रित मन को आसानी से समझा जा सकता है। उसने कहा – “मैंने आज तीन व्याख्यान दिए। एक तो मैंने व्याख्यान देने से पहले अपने मन में व्याख्यान दिया। एक व्याख्यान लोगों के बीच दिया और तीसरा व्याख्यान अभी दे रहा हूं।“ यानी मन के भीतर इतना शोर-गुल वाला बाजार सजा हुआ है तो चित्त की एकाग्रता की बात बेमानी होगी ही।

फिर हमें बैठने भी तो नहीं आता। बैठने आ जाए तो भी कुछ बात बने। कुछ रास्ता निकले। हम बैठते हैं इस तरह कि शारीरिक ऊर्जा का प्रवाह गलत दिशा में होता है। यह स्थिति मन को अशांत बनाने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। मैंने पिछले लेख में सिद्धासन की चर्चा की थी। बताया था कि सिद्धासन प्राण-शक्ति को, शारीरिक ऊर्जा के प्रवाह को मूलाधार से सहस्रार की ओर ले जाने में किस तरह बेहतर जरिया बनता है। योग के वैज्ञानिक संत कहते रहे हैं कि सिद्धासन न लगे तो आदमी रीढ़ सीधी करके सुखासन में ही बैठ जाएं और अपनी श्वासों के प्रवाह पर ध्यान देने की कोशिश कर ले तो चीजें बदल जा सकती हैं। इसलिए कि इस स्थिति में शरीर की ऊर्जा कम से कम बर्बाद होगी तो उस ऊर्जा का दिशांतरण करना आसान होगा। योग का सारा खेल ऊर्जा की दिशा बदलने को लेकर है।

पर ऐसा करना भी संभव न हो तो सवाल उठना लाजिमी है कि आदमी दूसरा कौन-सा मार्ग अपनाए कि अंधकार से प्रकाश की ओर यात्रा हो सके?  संतों की मानें तो आधुनिक युग में चित्त की एकाग्रता के लिए भक्तियोग का संकीर्त्तन आसान भी है और असरदार भी। अवसाद से ग्रसित या विभिन्न प्रकार के उलछनों में फंसे जो लोग अष्टांग योग की साधनाओं यथा प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा आदि के जरिए चित्त को एकाग्र करने की स्थिति में नहीं होतें, वे प्रार्थना, संकीर्त्तन आदि के जरिए भक्तियोग के मार्ग पर सहजता से बढ़कर चित्त को एकाग्र कर सकते हैं। परमहंस स्वामी सत्यानंद सरस्वती कहते थे कि हठयोग, राजयोग, क्रियायोग या अन्य योगों का अभ्यास लोग इसलिए करते हैं कि उनमें भक्ति नहीं है। ये सारी क्रियाएं भक्तिभाव जागृत करने के लिए ही जाती हैं। पर आदमी के भीतर भक्ति का सही दृष्टिकोण है तो कुछ भी करने की जरूरत नहीं। भक्त के जीवन में प्रेम की अभिव्यक्ति होती है। चाहे वह प्रेम परमात्मा के लिए हो या फिर अपने चारों तरफ के लोगों के लिए।

महान योगी और योगी कथामृत के लेखक परमहंस योगानंद की बातों से इस बात की पुष्टि होती है। वे कहा करते थे, “अनेक लोग जीवन की समस्याओं से घबरा जाते हैं। अवसादग्रस्त हो जाते हैं। मेरे जीवन में जब भी ऐसी परिस्थितियों का निर्माण हुआ, मैंने सदा यह प्रार्थना की है कि हे प्रभु, आपकी शक्ति की मुझमें वृद्धि हो। मुझे सदा सकारात्मक चेतना में रखना। ताकि मैं आपकी सहायता से अपनी कठिनाइयों पर सदा विजय प्राप्त कर सकूं। यकीनन प्रार्थना फलित होती गई। प्रार्थना में बड़ी शक्ति है। श्रद्धा की तीब्रता जितनी अधिक होती है, प्रार्थना उतनी ही तीब्रता से फलित होती है।“ चालीस के दशक में कही गई यह बात कोरोनाकाल में बेहद प्रासंगिक है।

(लेखक ushakaal.com के संपादक और योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

 

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